मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

हैं आँखें खुश्क


हैं आँखें खुश्क
- सविता असीम

 
हैं आँखें खुश्क रोये जा रही हूँ
मैं अपना दर्द ढोये जा रही हूँ

तुझे पा लेने की इस धुन में मैं भी
मुसलसल ख़ुद को खोये जा रही हूँ

उगेगी कब फ़स्ल इन्सानियत की
वफ़ा के बीज बोये जा रही हूँ

बहाने जागने के सैकड़ों हैं
मगर मैं हूँ कि सोये जा रही हूँ

मोहब्बत की कहानी लिख रही हूँ
कलम ख़ूँ में डुबोये जा रही हूँ

ग़ज़ल के रेशमी धागों पे ‘सविता’
मैं बस आँसू पिरोये जा रही हूँ

हमें ये सोच के


हमें ये सोच के
 - सविता असीम

हमें ये सोच के रोना पड़ेगा 
जो पाया है उसे खोना पड़ेगा

तेरी नादानियों को ऐ मुहब्बत 
हमें ता ज़िंदगी ढोना पड़ेगा

हमारे हौसले गर थक गए तो 
हमें थक हारके सोना पड़ेगा

अगर ये द़ाग है शर्मिंदगी का 
तो फिर अश्कों से ही धोना पड़ेगा

मोहब्बत की ज़मीं सूनी है ‘सविता’ 
गजल के शेर अब बोना पड़ेगा

लोग जब अपनापन जताते हैं

लोग जब अपनापन जताते हैं
  - सविता असीम


लोग जब अपनापन जताते हैं
इक नया ज़ख़्म देके जाते हैं

जब बदलना है रास्ते उनको
किसलिए झूठी कसमें खाते हैं

जिनके चेहरे पे सौ खराशें हैं
वो हमें आईना दिखाते हैं

खुद ही भटके हैं रास्ता वो लोग
सबको जो रास्ता बताते हैं

जो मुखौटे लगाके मिलते हैं
वो ‘सविता’ को जान जाते हैं

डर कैसा रुसवाई का

डर कैसा रुसवाई का
 - सविता असीम 


डर कैसा रुसवाई का
कहना था सौदाई का

किस्सा भाई-भाई का
बँटवारा अंगनाई का

महफ़िल-महफ़िल गाते हैं
हम नग़मा तनहाई का

सहरा बोला बादल से
दर्द समझ पुरवाई का

क्या तुमको अंदाज़ा है
इस दिल की गहराई का

मौसम के अनुमान-सा है
वादा इक हरजाई का

तेरा जलवा देख सके
मक़सद है बीनाई का

अर्थ न रावण जान सका
तुलसी की चौपाई का

सौदा करने पर मजबूर
लोग ‘असीम’ अच्छाई का

किया रूह को


किया रूह को
  - सविता असीम

किया रूह को क्या किसी के हवाले
लबों पर हैं पहरे ज़ुबाँ पर हैं ताले

मुझे पाके उसने हकीक़त को पाया
उसे पाके मैंने फ़क़त ख़्वाब पाले

बहुत कोशिशें कीं रहूँ मैं उसी की
जनाज़े वफ़ा के उसी ने निकाले

दिए जिसने मुझको ये ग़म के अँधेरे
उसे मैंने बख्शे थे कितने उजाले

हवाएँ न उड़ जाएँ ख़ुशबू को लेकर
कहो गुल से ख़ुशबू सँभलकर निकाले

मेरा शोके-मंज़िल भी कुछ कम नहीं है
यही मुझसे कहते हैं पैरों के छाले


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